Monday, May 31, 2010

मुफ़्त की चाय

अदभुत दुनिया के अदभुत लोग, अदभुत इसलिये कि क्रियाकलाप अदभुत ही हैं, एक सेठ जी जिनके कारनामें अचंभित कर देते हैं अब क्या कहें कभी-कभी सेठ टाईप के लोगों के साथ भी उठना-बैठना हो जाता है उनको मैने खाने-पीने के अवसर पर देखा, एक-दो बार तो सोचा कभी-कभार हो जाता है पर अनेकों बार के अनुभव पर पाया कि यह अचानक होने वाली क्रिया नही है वरन "सेठ बनने और बने रहने" का सुनियोजित "फ़ार्मूला" है ।

होता ये है कि जब सेठ जी को "मुफ़्त की चाय" मिली तो "शटशट-गटागट" पी गये और जब होटल में किसी के साथ चाय पीने-पिलाने का अवसर आया तो उनके चाय पीने की रफ़्तार ...... रफ़्तार तो बस देखते ही बनती है तात्पर्य ये है कि उनकी चाय तब तक खत्म नहीं होती जब तक साथ में बैठा आदमी जेब में हाथ डालकर रुपये निकाल कर चाय के पैसे देने न लग जाये ..... जैसे ही चाय के पैसे दिये सेठ जी की चाय खत्म .... वाह क्या "फ़ार्मूला" है।

एक बार तो हद ही हो गई हुआ ये कि सेठ जी के आग्रह पर एक दिन बस तिगड्डे पे खडे हो कर शर्बत (ठंडा पेय पदार्थ) पीने लगे ... सेठ जी का शर्बत पीने का अंदाज सचमुच अदभुत था चाय की तरह चुस्कियां मार-मार कर पीने लगे .... उनकी चुस्कियां देख कर मेरे मन में विचार बिजली की तरह कौंधा .... क्या गजब "लम्पट बाबू" है कभी मुफ़्त की चाय शटाशट पी जाता है तो आज शर्बत को चाय की तरह चुस्कियां मार-मार कर पी रहा है .... मुझसे भी रहा नहीं जाता कुछ-न-कुछ मुंह से निकल ही जाता है मैने भी झपाक से कह दिया ... क्या "स्टाईल" है हुजूर इतनी देर में तो दो-दो कप चाय पी लेते ... सेठ जी सुनकर मुस्कुरा दिये फ़िर थोडी ही देर में सहम से गये ... सचमुच यही अदभुत दुनिया के अदभुत लोग हैं।

Saturday, May 29, 2010

'हालात'

तेरी एक निगाह ने
फ़िर तेरी मुस्कान ने
कुछ कहा मुझसे

क्या कहा-क्या नहीं
मैं समझता जब तक
तेरे 'हालात' ने
कुछ कह दिया मुझसे

इस बार शब्द सरल थे
पर 'हालात' कठिन थे

वक्त गुजरा, 'हालात' बदले
फ़िर तेरी आंखों ने
कुछ कहा मुझसे
हर बार कुछ-न-कुछ कहती रहीं

क्या समझता - क्या नहीं
क्या मैं कहता - क्या नहीं

एक तरफ़ तेरी खामोशी
एक तरफ़ मेरी तन्हाई
खामोश बनकर देखते रहे
तुझको - मुझको
मुझको -तुझको ।

Wednesday, May 26, 2010

शेरों का कारवां

उदय’ तेरी आशिकी, बडी अजीब है

जिससे भी तू मिला, उसे तन्हा ही कर गया।
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झौंके बन चुके हैं हम हवाओं के

तेरी आँखों को अब हमारा इंतजार क्यों है।

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वतन की खस्ताहाली से मतलब नहीं उनको
वतन के शिल्पी होकर जो गददार बन बैठे।

Tuesday, May 25, 2010

काला धन

काला धन क्या है ! काला धन से सीधा-सीधा तात्पर्य ऎसे धन से है जो व्यवहारिक रूप से सरकार व आयकर विभाग की नजर से छिपा हुआ है,यह भी धन तो है पर लेखा-जोखा में नहीं है यह बडे-बडे व्यापारियों, राजनेताओं, अधिकारियों, माफ़ियाओं व हवाला कारोबारियों की मुट्ठी में अघोषित रूप से बंद पडा है, इसे न सिर्फ़ व्यवहार में सार्वजनिक रूप से लिया जा सकता है और न ही इसका सार्वजनिक रूप से उपभोग किया जाना संभव है, पर इतना तय है कि इस कालेधन से काले कारनामों को निर्भिकतापूर्वक संपादित किया जा सकता है और लुक-छिप कर इसका भरपूर उपभोग संभव है।

कालेधन का कोई पैमाना नही है यह छोटी मात्रा अथवा बडे पैमाने पर हो सकता है, दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि जिन लोगों के पास ये धन है संभवत: उन्हें खुद भी इसकी मात्रा का ठीक-ठीक अनुमान न हो, कहने का तात्पर्य ये है कि सामान्यतौर पर इंसान कालेधन का ठीक से लेखा-जोखा नहीं रख पाता है, जाहिरा तौर पर वह कालाधन जो विदेशी बैंकों मे जमा है अथवा जो विदेशी कारोबारों में लगा है उसके ही आंकडे सही-सही मिल सकते हैं, पर जिन लोगों के पास ये घर, जमीन, बैंक लाकर्स व तिजोरियों में बंद पडा है उसका अनुमान लगा पाना बेहद कठिन है।

काला धन कहां से आता है!! ... काला धन कैसे बनता है!!! ... कालेधन की माया ही अपरमपार है, बात दर-असल ये है कि धन की उत्पत्ति वो भी काले रूप में ... क्या ये संभव है! ... जी हां, ये बिलकुल सम्भव है पर इसे शाब्दिक रूप में अभिव्यक्त करना बेहद कठिन है, वो इसलिये कि जिसकी उत्पत्ति के सूत्र हमें जाहिरा तौर पर बेहद सरल दिखाई देते हैं वास्तव में उतने सरल नहीं हैं ...

... हम बोलचाल की भाषा में रिश्वत की रकम, टैक्स चोरी की रकम इत्यादि को ही कालेधन के रूप में देखते हैं और उसे ही कालाधन मान लेते हैं ... मेरा मानना है कि ये कालेधन के सुक्ष्म हिस्से हैं, वो इसलिये कि रिश्वत के रूप में दी जाने वाली रकम तथा टैक्स चोरी के लिये व्यापारियों व कारोबारियों के हाथ में आने वाली रकम ... आखिर आती कहां से है ...

... अगर आने वाली रकम "व्हाईट मनी" है तो क्या ये संभव है कि देने वाला उसका लेखा-जोखा नहीं रखेगा और लेने वाले को काला-पीला करने का सुनहरा अवसर दे देगा ... नहीं ... बिलकुल नहीं ... बात दर-असल ये है कि ये रकम भी कालेधन का ही हिस्सा होती है ... इसलिये ही तो देने वाला देकर और लेने वाला लेकर ... पलटकर एक-दूसरे का चेहरा भी नहीं देखते ...

... तो फ़िर कालेधन कि मूल उत्पत्ति कहां से है ... कालेधन की उत्पत्ति की जड हमारे भ्रष्ट सिस्टम में है ... होता ये है कि जब किसी सरकारी कार्य के संपादन के लिये १००० करोड रुपये स्वीकृत होते हैं और काम होता है मात्र १०० करोड रुपयों का ... बचने वाले ९०० करोड रुपये स्वमेव कालेधन का रूप ले लेते हैं ... क्यों, क्योंकि इन बचे हुये ९०० करोड रुपयों का कोई लेखा-जोखा नहीं रहता, पर ये रकम बंटकर विभिन्न लोगों के हाथों/जेबों में बिखर जाती है ... और फ़िर शुरु होता है इसी बिखरी रकम से लेन-देन, खरीदी-बिक्री, रिश्वत व टैक्स चोरी, मौज-मस्ती, सैर-सपाटे जैसे कारनामें ... क्या सचमुच यही कालाधन है !!!!!

Monday, May 24, 2010

कौन कहता है नक्सलवाद एक विचारधारा है !!!

कौन कहता है नक्सलवाद समस्या नहीं एक विचारधारा है, वो कौनसा बुद्धिजीवी वर्ग है या वे कौन से मानव अधिकार समर्थक हैं जो यह कहते हैं कि नक्सलवाद विचारधारा है .... क्या वे इसे प्रमाणित कर सकेंगे ? किसी भी लोकतंत्र में "विचारधारा या आंदोलन" हम उसे कह सकते हैं जो सार्वजनिक रूप से अपना पक्ष रखे .... कि बंदूकें हाथ में लेकर जंगल में छिप-छिप कर मारकाट, विस्फ़ोट कर जन-धन को क्षतिकारित करे

यदि अपने देश में लोकतंत्र होकर निरंकुश शासन अथवा तानाशाही प्रथा का बोलबाला होता तो यह कहा जा सकता था कि हाथ में बंदूकें जायज हैं ..... पर लोकतंत्र में बंदूकें आपराधिक मांसिकता दर्शित करती हैं, अपराध का बोध कराती हैं ... बंदूकें हाथ में लेकर, सार्वजनिक रूप से ग्रामीणों को पुलिस का मुखबिर बता कर फ़ांसी पर लटका कर या कत्लेआम कर, भय दहशत का माहौल पैदा कर भोले-भाले आदिवासी ग्रामीणों को अपना समर्थक बना लेना ... कौन कहता है यह प्रसंशनीय कार्य है ? ... कनपटी पर बंदूक रख कर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, कलेक्टर, एसपी किसी से भी कुछ भी कार्य संपादित कराया जाना संभव है फ़िर ये तो आदिवासी ग्रामीण हैं

अगर कुछ तथाकथित लोग इसे विचारधारा ही मानते हैं तो वे ये बतायें कि वर्तमान में नक्सलवाद के क्या सिद्धांत, रूपरेखा, उद्देश्य हैं जिस पर नक्सलवाद काम कर रहा है .... दो-चार ऎसे कार्य भी परिलक्षित नहीं होते जो जनहित में किये गये हों, पर हिंसक वारदातें उनकी विचारधारा बयां कर रही हैं .... आगजनी, लूटपाट, डकैती, हत्याएं हर युग - हर काल में होती रही हैं और शायद आगे भी होती रहें .... पर समाज सुधार व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन के लिये बनाये गये किसी भी ढांचे ने ऎसा नहीं किया होगा जो आज नक्सलवाद के नाम पर हो रहा है .... इस रास्ते पर चल कर वह कहां पहुंचना चाहते हैं .... क्या यह रास्ता एक अंधेरी गुफ़ा से निकल कर दूसरी अंधेरी गुफ़ा में जाकर समाप्त नहीं होता !

नक्सलवादी ढांचे के सदस्यों, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर रहे बुद्धिजीवियों से यह प्रश्न है कि वे बताएं, नक्सलवाद ने क्या-क्या रचनात्मक कार्य किये हैं और क्या-क्या कर रहे हैं ..... शायद वे जवाब में निरुत्तर हो जायें ... क्योंकि यदि कोई रचनात्मक कार्य हो रहे होते तो वे कार्य दिखाई देते.... दिखाई देते तो ये प्रश्न ही नहीं उठता .... पर नक्सलवाद के कारनामें ... कत्लेआम ... लूटपाट ... मारकाट ... बारूदी सुरंगें ... विस्फ़ोट ... आगजनी ... जगजाहिर हैं ... अगर फ़िर भी कोई कहता है कि नक्सलवाद विचारधारा है तो बेहद निंदनीय है।

Sunday, May 23, 2010

"लालची बुढडा"

एक महाशय के घर पडौस के गांव से एक परिवार लडकी देखने आया, लडके व उसके माता-पिता का शानदार स्वागत किया गया, बडी लडकी जिसकी शादी की बात चल रही थी वह ही "सझी-संवरी" मिष्ठान इत्यादि परोस रही थी इसी दौरान लडका-लडकी का आपस मे परिचय कराया गया, इसी बीच छोटी लडकी भी चाय का ट्रे लेकर पहुंच गई, वह ट्रे को मेज पर रखकर अभिवादन स्वरूप हाथ जोडकर बैठ गई, स्वल्पाहार व बातचीत चलती रही, इसी बीच लडके व उसके मा-बाप की नजर बार-बार छोटी लडकी पर जा रही थे उसका कारण ये था कि बडी लडकी थोडी सांवली व दुबली थी और छोटी लडकी गोरी व खूबसूरत थी, स्वल्पाहार के पश्चात दोनो परिवार एक-दूसरे से विदा हुए, मेहमानों का हाव-भाव व चेहरे की प्रसन्नता देखकर रिश्ता पक्का लग रहा था इसलिये लडकी का पूरा परिवार खुश था किंतु हां-ना का जबाव नहीं मिला था।

एक-दो दिन बाद लडकी का पिता पडौस के गांव लडके के घर गया, शानदार हवेली थी काफ़ी अमीर जान पड रहे थे लडके व उसके माता-पिता ने बहुत अच्छे ढंग से स्वागत किया और बोले हमें आपके साथ रिश्तेदारी मंजूर है लेकिन एक छोटी सी समस्या है मेरे लडके को आपकी छोटी लडकी पसंद है और उसी से शादी करूंगा कह रहा है। लडकी का पिता प्रस्ताव सुनकर थोडी देर के लिये सन्न रह गया ...... फ़िर बैठे-बैठे ही मन के घोडे दौडाने लगा ..... लडका अच्छा है .....अमीर परिवार है ..... हवेली भी शानदार है .... व्यापार-कारोबार भी अच्छा है ...बगैरह-बगैरह ... उसने परिवार के सदस्यों की राय लिये बगैर ही छोटी लडकी के साथ शादी के लिये हां कह दी ........ हां सुनते ही खुशी का ठिकाना न रहा .... गले मिलने व जोर-शोर से स्वागत का दौर चल पडा ..... खुशी-खुशी विदा होने लगे ..... लडके के पिता ने लडडुओं की टोकरी व वस्त्र इत्यादि भेंट स्वरूप घर ले जाने हेतु दिये।

खुशी-खुशी लडकी का पिता घर पहुंचा रिश्ता तय होने की खुशी मे सबको मिठाई खिलाई ..... पूरा परिवार खुशी से झूम गया .... छोटी बहन-बडी बहन दोनों खुश थे गले लग कर छोटी ने बडी बहन को बधाई दी .......सब की खुशियां देख बाप ने थोडा सहमते हुए सच्चाई बताई ...... सच्चाई सुनकर सन्नाटा सा छा गया ........ दो-तीन दिन सन्नाटा पसरा रहा .... जब सन्नाटा टूटा तो "लालची बुढडे" का चेहरा गुस्से से तिलमिला गया उसे शादी की खुशियां "ना" मे बदलते दिखीं ..... छोटी लडकी ने शादी से साफ़-साफ़ इंकार कर दिया .......परिवार के सभी इस रिश्ते के खिलाफ़ हो गये।

.....दो-तीन घंटे की गहमा-गहमी के बाद भी कोई बात नहीं बनी तब "लालची बुढडा" गुस्से ही गुस्से में घर से बाहर निकल गया ......... कुछ दूरी पर ही वह मुझसे टकरा गया ....... मैंने कहा क्या बात है भाई, गुस्से मे क्यों चेहरा लाल-पीला किये घूम रहे हो ........ उसने धीरे से सारा किस्सा सुनाया ..... देखो भाई साहब घर बालों ने मेरी "जुबान" नहीं रखी ..... मेरी इज्जत डुबाने में तुले हैं .... कितना अमीर परिवार है अब मैं उन्हे क्या जबाब दूंगा .... उसकी बातें सुनते-सुनते ही मेरे मन में ये विचार बिजली की तरह कौंधा ..... क्या "लंपट बाबू "है, लालच मे बडी की जगह छोटी लडकी की शादी तय कर आया ..... ।

...........अब क्या कहूं मुझसे भी रहा नहीं जाता कुछ-न-कुछ "कडुवा सच" मेरे मुंह से निकल ही जाता है ....... मैने कहा ..... दो-चार दिन के मेहमान हो, वैसे भी एक पैर "कबर" में है और दूसरा "कबर" के इर्द-गिर्द ही घूमते रहता है ... लालच मे मत पडो कोई दूसरा अच्छा लडका मिल जायेगा .....कहीं ऎसा होता है कि बडी की बात चल रही हो और कोई छोटी के लिये हां कह दे ..... घर जाओ, जिद छोडो बच्चों की हां मे ही "हां" है और "खुशी मे ही खुशी" ।

Saturday, May 22, 2010

कंजूस खोपडी

एक दिन ट्रैन में यात्रा के दौरान सामने वाली सीट पर एक महाशय को सूट-बूट मे आस-पास बैठे यात्रियों के साथ टाईमपास करते देखा, वह देखने से धनवान और बातों से धनाढय जान पड रहा था, तभी एक फ़ल्ली बेचने वाला आया, कुछ यात्रियों ने ५-५ रुपये की फ़ल्लियां खरीद लीं तभी उस धनाढय महाशय ने भी फ़ल्ली वाले से २ रुपये की फ़ल्ली मांगी, फ़ल्ली वाले ने उसे सिर से पांव तक देखा और २ रु. की फ़ल्ली चौंगा मे निकाल कर देने लगा तभी महाशय ने व्याकुलतापूर्वक कहा बहुत कम फ़ल्ली दे रहे हो तब उसने कहा - सहाब मै कम से कम ५ रु. की फ़ल्ली बेचता हूं वो तो आपके सूट-बूट को देखकर २ रु. की फ़ल्ली देने तैयार हुआ हूं कोई गरीब आदमी मांगता तो मना कर देता।
वह महाशय अन्दर ही अन्दर भूख से तिलमिला रहे थे फ़िर भी कंजूसी के कारण मात्र २ रु. की ही फ़ल्ली मांग रहे थे फ़ल्ली से भरा चौंगा हाथ मे लेकर २ रु देने के लिये पेंट की जेब मे हाथ डाला तो ५००-५००, १००-१०० के नोट निकले, अन्दर रखकर दूसरी जेब मे हाथ डाला तो ५०-५०,२०-२०,१०-१० के नोट निकले, उन्हे भी अन्दर रखकर शर्ट की जेब मे हाथ डाला तो ५-५ के दो नोट निकले, एक ५ रु का नोट हाथ मे रखकर सोचने लगे तभी फ़ल्ली वाले ने कहा सहाब पैसे दो मुझे आगे जाना है, तब महाशय ने जोर से गहरी सांस ली और नोट को पुन: अपनी जेब मे रख लिया और चौंगा से दो फ़ल्ली निकाल कर चौंगा फ़ल्ली सहित वापस करते हुये बोले- ले जा तेरी फ़ल्ली नही लेना है, फ़ल्ली बाला भौंचक रह गया गुस्से भरी आंखों से महाशय को देखा और आगे चला गया।
महाशय ने हाथ मे ली हुईं दोनो फ़ल्लियों को बडे चाव से चबा-चबा कर खाया और मुस्कुरा कर चैन की सांस ली, ये नजारा देख कर त्वरित ही मेरे मन में ये बिचार बिजली की तरह कौंधा "क्या गजब का 'लम्पट बाबू' है, ..... पेट मे भूख - जेब मे नोट - क्या गजब कंजूस ....... मुफ़्त की दो फ़ल्ली खूब चबा-चबा कर ....... वा भई वाह ..... क्या कंजूस खोपडी है" तभी अचानक उस "लम्पट बाबू" की नजर मुझ पर पडी थोडा सहमते हुये वह खुद मुझसे बोला - देखो न भाई साहब २ रु खर्च होते-होते बच गये एक घंटे बाद घर पहुंच कर खाना ही तो खाना है!!! तब मुझसे भी रहा नही गया और बोल पडा - वा भई वाह क्या ख्याल है ...... लगता है सारी धन-दौलत पीठ पर बांध कर ले जाने का भरपूर इरादा है ।

Friday, May 21, 2010

अमीर किसान - गरीब किसान

हमारा देश किसानों का देश है कुछ वर्ष पहले तक एक ही वर्ग के किसान होते थे जिन्हे लोग 'गरीब किसान' के रूप में जानते थे जो सिर्फ़ खेती कर और रात-दिन मेहनत कर अपना व परिवार का गुजारा करते थे लेकिन समय के साथ-साथ बदलाव आया और एक नया वर्ग भी दिखने लगा जिसे हम 'अमीर किसान' कह सकते हैं।

... अरे भाई, ये 'अमीर किसान' कौन सी बला है जिसका नाम आज तक नहीं सुना .....और ये कहां से आ गया ... अब क्या बतायें, 'अमीर किसान' तो बस अमीर किसान है .... कुछ बडे-बडे धन्ना सेठों, नेताओं और अधिकारियों को कुछ जोड-तोड करने की सोची.... तो उन्होने दलालों के माध्यम से गांव-गांव मे गरीब-लाचार किसानो की जमीनें खरीदना शुरू कर दीं... और फ़िर जब जमीन खरीद ही लीं, तो किसान बनने से क्यों चूकें !!! ......... आखिर किसान बनने में बुराई ही क्या है........ फ़िर किसानी से आय मे 'इन्कमटैक्स' की छूट भी तो मिलती है साथ-ही-साथ ढेर सारी सरकारी सुविधायें भी तो है जिनका लाभ आज तक बेचारा 'गरीब किसान' नहीं उठा पाया ।

........ अरे भाई, यहां तक तो ठीक है पर हम ये कैसे पहचानेंगे कि अमीर किसान का खेत कौनसा है और गरीब किसान का कौन सा ? ............ बहुत आसान है मेरे भाई, जिस खेत के चारों ओर सीमेंट के खंबे और फ़ैंसिंग तार लगे हों तो समझ लो वह ही अमीर किसान का खेत है, थोडा और पास जाकर देखोगे तो खेत में अन्दर घुसने के लिये बाकायदा लोहे का मजबूत गेट लगा मिलेगा, तनिक गौर से अन्दर नजर दौडाओगे तो एक शानदार चमचमाती चार चक्का गाडी भी खडी दिख जायेगी ...... तो बस समझ लो यही 'अमीर किसान' का खेत है ।

........... अब अगर अमीर किसान और गरीब किसान में फ़र्क कुछ है, तो बस इतना ही है कि अमीर किसान के खेत की देखरेख साल भर होती है, और गरीब किसान के खेत में साल भर में एक बार "खेती" जरूर हो जाती है ।

Thursday, May 20, 2010

शेरों की दौड

हुई आँखें नम, तेरे इंतजार में 'उदय'

कम से कम, अब इन्हें छलकने तो दो
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न चाहो उन्हे तुम, जिन्हे तुम चाहते हो

चाहना है, तो उन्हे चाहो, जो तुमको चाहते हैं।

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न छोडी कसर उन ने, कांटो को चुभाने में,
खड़े हैं अब अकेले ही, सँजोकर आरजू दिल में ।

Wednesday, May 19, 2010

दोस्ती

वो रहनुमा 'दोस्त' बनकर,
हमसे मिलते रहे
और हम उन्हें,
अपना हमदम समझते रहे
चलते-चलते,
ये हमें अहसास न हुआ
कि वो दोस्त बनकर,
दुश्मनी निभा रहे हैं
एक-एक बूंद 'जहर',
रोज हमको पिला रहे हैं

अब हर कदम पर देखता हूं,
उनका 'हुनर'
हर 'हुनर' को देखकर ,
अब सोचता हूं
'दोस्ती' से दुश्मनी ज्यादा भली थी
तुम दुश्मन होते,
तो अच्छा होता
कम-से-कम मेरी पीठ में,
खंजर तो न उतरा होता

संतोष कर लेता,
देखकर खरोंच सीने की
अब चाहूं तो कैसे देखूं,
वो निशान पीठ के
अब 'उदय' तुम ही कुछ कहो
किसे 'दोस्त', और दुश्मन किसे कहें।

Monday, May 17, 2010

दानवीर सेठ

एक सेठ जी को महान बनने का विचार मन में "गुलांटी" मार रहा था वे हर समय चिंता मे रहते थे कि कैसे "महान" बना जाये, इसी चिंता में उनका सोना-जगना , खाना-पीना अस्त-व्यस्त हो गया था। कंजूसी के कारण दान-दया का विचार भी ठीक से नहीं बन पा रहा था बैठे-बैठे उनकी नजर घर के एक हिस्से मे पडे कबाडखाने पर पड गई खबाडखाने के सामने घंटों बैठे रहे और वहीं से उन्हे "महान" बनने का "आईडिया" मिल गया। दूसरे दिन सुबह-सुबह सेठ जी कबाड से पन्द्रह-बीस टूटे-फ़ूटे बर्तन - लोटा, गिलास, थाली, प्लेट इत्यादि झोले मे रखकर निकल पडे, पास मे एक मंदिर के पास कुछ भिखारी लाईन लगाकर बैठे हुये थे, सेठ जी ने सभी बर्तन भिखारियों में बांट दिये, बांटकर सेठ जी जाने लगे तभी एक भिखारी ने खुद के पेट पर हाथ रखते हुये कहा "माई-बाप" कुछ खाने-पीने को भी मिल जाता तो हम गरीबों की जान में जान आ जाती, सेठ जी ने झुंझला कर कहा "सैकडों रुपये" के बर्तन दान में दे दिये अब क्या मेरी जान लेकर ही दम लोगे ....... झुंझलाते हुये सेठ जी जाने लगे ...... तभी पीछे से भूख से तडफ़ रहे भिखारियों ने ...सेठ जी ... सेठ जी कहते हुये बर्तन उसके ऊपर फ़ेंक दिये और बोले .... बडा आया "दानवीर" बनने।

Sunday, May 16, 2010

शेरों का सफ़र

एक जिद ही है, जो हमें जिंदा रखे है
पत्थरों पे हम, इबारत लिख रहे हैं ।
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किसी तूफ़ान से भी कम, नहीं मेरे इशारे हैं
समझ जाओ तो जन्नत है, न समझे तो तूफ़ां है ।
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मेरी दुनिया है क्या, मत पूछो ये तुम मुझसे
कभी रोकर - कभी हंसकर, खिलौने बांट देता हूं ।

Saturday, May 15, 2010

सृजन

शब्दों की भीड में
चुनता हूं
कुछ शब्दों को

आगे-पीछे
ऊपर-नीचे
रख-रखकर
तय करता हूं
भावों को

शब्दों की तरह ही
'भाव' भी होते हैं आतुर
लडने-झगडने को
कभी सुनता हूं
कभी नहीं सुनता

क्यॊं ! क्योंकि
करना होता है

सृजन
एक 'रचना' का

शब्द, भाव, मंथन
मंथन से ही
संभव है
सृजन
एक "रचना" का !

Friday, May 14, 2010

"खुदा महरवान तो गधा पहलवान"

आज मन में कुछ लिखने का विचार नहीं बन रहा था ....क्या लिखूं कुछ समझ में नहीं रहा था .... तभी दिमाग में एक बिजली कौंधी .... "चलो आज "भगवान" का बाजा बजाया जाये !" .... अरे भाई भगवान का ही क्यूं ... धरती पर क्या बाजा बजाने के लिये "गधे" कम पड गये हैं ... गधे कम नहीं पड गये हैं बल्कि उनकी संख्या दिन--दिन बढते जा रही है .... इसलिये ही तो "भगवान" का बाजा बजाने का मन कर रहा है .... देख के भाई जरा संभल के ... अब संभलना क्या है ... आज तो "भगवान" से पंगा लेकर ही रहेंगे ....

.... हुजूर ... माई-बाप ... पालनहार ... अरे इधर-उधर मत देखो "प्रभु ...अंतरयामी" ... मैं आप ही से बात कर रहा हूं बात क्या कर रहा हूं सीधा-सीधा एक सबाल पूंछ रहा हूं .... धरती पर "गधों" की संख्या दिन--दिन क्यों बढाये पडे हो ? .... भगवान जी सोचने लगे ... ये कौन "सिरफ़िरा" गया ... क्या इसे मैंने ही बनाया है !! .... भगवान जी चिंतित मुद्रा में ... चिंतित मतलब "नारद जी" प्रगट .... मैं समझ गया कि आज मेरे प्रश्न का उत्तर मुश्किल ही है ...

.... भगवान जी कुछ बोलते उससे पहले ही नारद जी बोल पडे .... नारायण-नारायण ... प्रभु ये वही "महाशय" हैं जो श्रष्टी की रचना करते समय "मीन-मेक" निकाल रहे थे, जिनके सबालों का हमारे पास कोई जबाव भी नही था जिन्हें समझा-बुझाकर कुछ समय के लिये शांत कर दिये थे आज-कल धरती पर समय काट रहे हैं ..... भगवान जी त्वरत आसन से उठ खडे हुये .... और नारद से पूंछने लगे ...

.... धरती पर गधे नाम के जानवर की संख्या तो कम हो रही है फ़िर ये कैसे हम पर आरोप लगा रहे हैं कि हम गधों की संख्या बढा रहे हैं .... प्रभु ये तो मेरे भी समझ में नहीं रहा ... चलो इन्हीं से पूंछ लेते हैं .... मैंने कहा- मेरा सीधा-सीधा सबाल है धरती पर "गधों" की संख्या दिन--दिन क्यों बढ रही है ? ... फ़िर आश्चर्य के भाव ... मेरा मतलब धरती पर "गधे टाईप" के मनुष्य जो लालची, कपटी, बेईमान, धूर्त, मौकापरस्त, लम्पट हैं उनसे है ...

.... उन पर ही आप की महरवानी क्यों हो रही है ... वे ही क्यों मालामाल हो रहे हैं .... वे ही क्यों मलाई खा रहे हैं ... उनको देख-देख कर दूसरे भी "गधे" बनने के लिये दौड रहे हैं .... किसी दिन धरती पे के देखो .... वो कहावत चरितार्थ हो रही है ...
"खुदा महरवान तो गधा पहलवान" .... मैं तो बस यही जानना चाहता हूं ... आप लोगों की महरवानी से "कब तक गधे पहलवानी करते रहेंगे"..... भगवान जी पुन: चिंतित मुद्रा में ... तभी नारद जी ... नारायण-नारायण ... प्रभु आपके सबाल का जबाव सोच रहे हैं ... मेरी एक समस्या है उसे सुलझाने मे मदद चाहिये .... नारद जी की समस्या ... समस्या क्या उनकी बातें सुनते सुनते फ़िर धरती पे गये .... मैं समझ गया आज जबाव मिलने वाला नहीं है .... लगता है "खुदा" की महरवानी से गधे पहलवानी करते रहेंगे !!!

Thursday, May 13, 2010

दो मित्र

दो मित्र सत्यानंद और धनीराम एक साथ पढते-पढते, खेलते-कूदते, मौज-मस्ती करते हुये बचपने से जवानी की दहलीज पार करते हुये जीवन के रंगमंच पर प्रवेश किये ..... दोनों के स्वभाव में तनिक ही अंतर था सत्यानंद होशियार बुद्धिमान था और धनीराम चालाक बुद्धिमान .... दोनों ही जीवन यापन के लिये कामधंधे में लग गये .... होशियार का मकसद "नाम प्रसिद्धि" कमाना था और चालाक का मकसद "धन-दौलत" कमाना था इसलिये वे दोनों अलग अलग राह पर निकल गये .....

..... चलते चलते समय करवट लेते रहा चार-पांच साल का वक्त गुजर गया, बदलाव के साथ ही दोनों की उपलब्धियां नजर आने लगीं चालाक मित्र "कार मोबाईल" के मजे ले रहा था और होशियार मित्र छोटे-मोटे समारोहों में "मान-सम्मान" से ही संतुष्ट था ..... हुआ ये था कि चालाक मित्र अपनी चालाकी से एक-दूसरे को "टोपीबाजी" करते हुये "कमीशन ऎजेंट" का काम कर रहा था और दूसरा बच्चों को टयूशन पढाते हुये "लेखन कार्य" में तल्लीन था ...

.... समय करवट बदलते रहा, पांच-सात साल का वक्त और गुजर गया ... गुजरते वक्त ने इस बार दोनों मित्रों को गांव से अलग कर दिया, हुआ ये कि धनीराम गांव छोडकर देश की राजधानी मे बस गया और सत्यानंद वहीं गांव मे रहते हुये बच्चों को पढाते पढाते दो-चार बार राजधानी जरूर घूम आया .... समय करवट बदलते रहा, और पंद्रह-सत्रह साल का वक्त गुजर गया ....

.... इस बार के बदलाव ऎसे थे कि दोनों मित्र आपस में एक बार भी नहीं मिल सके थे दोनों अपने-आप में ही मशगूल रहे, पर इस बदलाव में कुछ बदला था तो "वक्त ने करवट" ली थी हुआ ये था कि चालाक मित्र "करोडपति व्यापारी" बन गया था और होशियार मित्र "लेखक" बन गया था, व्यापारी "हवाईजहाज" से विदेश घूम रहा था और लेखक राष्ट्रपति से लेखन उपलब्धियों पर "पुरुस्कार" ले रहा था ....

.... वक्त गुजरता रहा, जीवन के अंतिम पडाव का दौर चल पडा था दोनों ही मित्रों ने अपना अपना मकसद पा लिया था लेकिन बरसों से दोनो एक-दूसरे से दूर अंजान थे ..... एक दिन चालाक मित्र अपने कारोबार के सिलसिले में अंग्रेजों के देश गया वहां साल के सबसे बडे जलसे की तैयारी चल रही थी उत्सुकतावश उसने जानना चाहा तो पता चला कि इस "जलसे" मे दुनिया की जानी-मानी हस्तियों को सम्मानित किया जाता है .... बताने बाले ने कहा कि इस बार तुम्हारे देश के "लेखक - सत्यानंद" को सर्वश्रेष्ठ सम्मान से सम्मानित किया जा रहा है यह तुम्हारे लिये गर्व की बात होनी चाहिये ....

.... उसकी बातें सुनते सुनते "सेठ - धनीराम" की आंखें स्वमेव फ़ट पडीं ... वह भौंचक रह गया .... मन में सोचने लगा ये कौन सत्यानंद है जिसे सम्मान मिल .... समारोह में अपने बचपन के मित्र सत्यानंद को "सर्वश्रेष्ठ सम्मान" से सम्मानित होते उसने अपनी आंखों से देखा और खुशी से उसकी आंखें अपने आप छलक पडीं .... वहां तो धनीराम को अपने मित्र सत्यानंद से मिलने का "मौका" नहीं मिल पाया ..... दो-चार दिन में व्यवसायिक काम निपटा कर अपने देश वापस आते ही धनीराम सीधा अपने गांव पहुंचा ....

....... बचपन के मित्र सत्यानंद से मिलने की खुशी ..... सत्यानंद ने धनीराम को देखते ही उठकर गले से लगा लिया .... दोनों की "खुशी" का ठिकाना रहा ..... धनीराम बोल पडा - मैने इतनी "धन-दौलत" कमाई जिसकी कल्पना नहीं की थी पर तेरी "प्रसिद्धि" के सामने सब "फ़ीकी" पड गई ..... आज सचमुच मुझे यह कहने में "गर्व" हो रहा है कि मैं "सत्यानंद" का मित्र हूं