धर्म - अधर्म क्या है ! मानव धर्म व मानवीय द्रष्ट्रिकोण से देखें तो धर्म व अधर्म की बेहद संक्षिप्त परिभाषा है किन्तु परिणाम बेहद विस्तृत हैं, सदभावना पूर्ण ढंग से किये गये कार्य धर्म हैं तथा दुर्भावना पूर्ण ढंग से किये गये कार्य अधर्म हैं।
सदभावना पूर्ण ढंग से किये गये कार्य सदैव ही मन को शांति प्रदान करते हैं, परिणाम सकारात्मक या नकारात्मक अथवा सामान्य प्राप्त हो सकते हैं किन्तु कार्य संपादन के दौरान चारों ओर शांति व सौहार्द्र का वातावरण बना रहता है।
दुर्भावना पूर्ण ढंग से किये गये कार्य सदैव ही मन को विचलित रखते हैं, कार्य आरंभ से लेकर समापन तक मन में व्याकुलता व अनिश्चितता बनी रहती है परिणाम सकारात्मक होने के पश्चात भी मन में संतुष्टि का अभाव रहता है।
जय गुरुदेव
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Wednesday, August 18, 2010
Sunday, August 8, 2010
क्या हम मन के गुलाम हैं !
मनुष्य का मन जिसकी शक्ति अपार है, मन की मंथन क्रिया से ही आधुनिक अविष्कार हुए हैं और होते ही जा रहे हैं, मन कभी इधर तो कभी उधर, कभी इसका तो कभी उसका, मन हर पल चंचल स्वभाव से ओत-प्रोत रहता है, पल में खुश तो पल में नाराज।
कहने को तो हम यह ही कहते हैं कि जो हम चाहते हैं वह ही मन करता है, पर हम कितने सही हैं, कहीं ऎसा तो नहीं ये हमारा भ्रम है कि मन हमारी मर्जी के आदेश पर काम करता है, कहीं ऎसा तो नहीं हम स्वयं ही मन के गुलाम हैं जो मन कहता है वह करते हैं जो उसे पसंद है वह करने को आतुर रहते हैं।
यह मनन करने योग्य है, सुबह से उठकर रात के सोने तक क्या हम वह ही करते हैं जो मन कहता जाता है, चाय, दूध, नाश्ता, पान, गुटका, जूस, मदिरा, वेज, नानवेज, प्यार, सेक्स, दोस्ती, दुश्मनी, चाहत, नफ़रत ... संभवत: वह सब करते हैं जो मन कहता जाता है।
जरा आप विचार करें, कितने बार ऎसा हुआ है कि आपने कुछ कहा हो और मन ने किया हो, शायद बहुत ही कम या ऎसा हुआ ही न हो, जरा बैठ के ठंठे दिमाग से सोचिये ... कहीं आप मन के गुलाम तो नहीं हैं !
जय गुरुदेव
कहने को तो हम यह ही कहते हैं कि जो हम चाहते हैं वह ही मन करता है, पर हम कितने सही हैं, कहीं ऎसा तो नहीं ये हमारा भ्रम है कि मन हमारी मर्जी के आदेश पर काम करता है, कहीं ऎसा तो नहीं हम स्वयं ही मन के गुलाम हैं जो मन कहता है वह करते हैं जो उसे पसंद है वह करने को आतुर रहते हैं।
यह मनन करने योग्य है, सुबह से उठकर रात के सोने तक क्या हम वह ही करते हैं जो मन कहता जाता है, चाय, दूध, नाश्ता, पान, गुटका, जूस, मदिरा, वेज, नानवेज, प्यार, सेक्स, दोस्ती, दुश्मनी, चाहत, नफ़रत ... संभवत: वह सब करते हैं जो मन कहता जाता है।
जरा आप विचार करें, कितने बार ऎसा हुआ है कि आपने कुछ कहा हो और मन ने किया हो, शायद बहुत ही कम या ऎसा हुआ ही न हो, जरा बैठ के ठंठे दिमाग से सोचिये ... कहीं आप मन के गुलाम तो नहीं हैं !
जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)
Tuesday, July 27, 2010
प्रार्थना
प्रार्थना से तात्पर्य किसी आवश्यकता की प्राप्ति हेतु अनुरोध करना है, यह अनुरोध प्रत्येक मनुष्य करता है जब कभी भी उसे कुछ विशेष पाने की चाह होती है वह अपने अपने ढंग से अनुरोध अवश्य करता है।
जब किसी मनुष्य को यह प्रतीत होता है कि अमुक सामने वाला व्यक्ति उसके अनुरोध की पूर्ति कर सकता है तब वह उस व्यक्ति से आवश्यकता की पूर्ति हेतु प्रत्यक्ष रूप से अनुरोध कर लेता है किन्तु जब उसे यह जानकारी नहीं होती कि उसकी आवश्यकता की पूर्ति करना किसके हाथ में है तब वह ईश्वर से प्रार्थना करता है।
ईश्वर, ईष्ट देव, गुरु, कुदरती शक्ति प्राप्त किसी व्यक्तित्व के समक्ष जब इंसान प्रार्थना करता है तब उसे इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये कि प्रार्थना नाम,यश,कीर्ति,सुख-समृद्धि की प्राप्ति के लिये होना चाहिये, न कि मन में बसे किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये।
संभव है ईश्वर ने आपके लिये, आपके द्वारा प्रार्थना में चाहे गए "विशेष उद्देश्य" से हटकर "कुछ और ही लक्ष्य" निर्धारित कर रखा हो, ऎसी परिस्थिति में प्रार्थना में चाहे गए लक्ष्य तथा ईश्वर द्वारा आपके लिये निर्धारित लक्ष्य दोनों समय-बेसमय आपकी मन: स्थिति को असमंजस्य में डालने का प्रयत्न करेंगे।
इसलिये मेरा संदेश मात्र इतना ही है कि जब भी आप प्रार्थना करें नाम, यश, कीर्ति, सुख - समृद्धि प्राप्ति के लिये ही करें।
जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)
जब किसी मनुष्य को यह प्रतीत होता है कि अमुक सामने वाला व्यक्ति उसके अनुरोध की पूर्ति कर सकता है तब वह उस व्यक्ति से आवश्यकता की पूर्ति हेतु प्रत्यक्ष रूप से अनुरोध कर लेता है किन्तु जब उसे यह जानकारी नहीं होती कि उसकी आवश्यकता की पूर्ति करना किसके हाथ में है तब वह ईश्वर से प्रार्थना करता है।
ईश्वर, ईष्ट देव, गुरु, कुदरती शक्ति प्राप्त किसी व्यक्तित्व के समक्ष जब इंसान प्रार्थना करता है तब उसे इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिये कि प्रार्थना नाम,यश,कीर्ति,सुख-समृद्धि की प्राप्ति के लिये होना चाहिये, न कि मन में बसे किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये।
संभव है ईश्वर ने आपके लिये, आपके द्वारा प्रार्थना में चाहे गए "विशेष उद्देश्य" से हटकर "कुछ और ही लक्ष्य" निर्धारित कर रखा हो, ऎसी परिस्थिति में प्रार्थना में चाहे गए लक्ष्य तथा ईश्वर द्वारा आपके लिये निर्धारित लक्ष्य दोनों समय-बेसमय आपकी मन: स्थिति को असमंजस्य में डालने का प्रयत्न करेंगे।
इसलिये मेरा संदेश मात्र इतना ही है कि जब भी आप प्रार्थना करें नाम, यश, कीर्ति, सुख - समृद्धि प्राप्ति के लिये ही करें।
जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)
Saturday, July 17, 2010
मन ही मंदिर है !
मंदिर वह पवित्र स्थल जहां ईश्वर का वास होता है, इस धरा पर अनेक धर्म व अनेक ईश्वर हैं, प्रत्येक धर्म ने अपने अपने ईश्वर के लिये स्थान सुनिश्चित कर रखा है जिसे शाब्दिक भाषा में मंदिर, चर्च, मस्जिद, गुरुद्वारा इत्यादि के नाम से जाना जाता है।
यहां पर मैं उस ईश्वर की चर्चा करना चाहता हूं जो किसी धर्म विशेष का न होकर मानव जाति का है, मेरा सीधा-सीधा तात्पर्य मानव जाति अर्थात समाज से है, वो इसलिये जब मानव जन्म लेता है तब उसका कोई धर्म नही होता, वह जिस धर्म को मानने वाले परिवार में जन्म लेता है वह ही उसका धर्म हो जाता है, यह धर्म उसे विरासत में मिलता है।
यहां यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं सभी धर्म को समान रूप से मानता हूं व सम्मान देता हूं लेकिन मैं मानव धर्म को प्राथमिक तौर पर सर्वोपरी मानता हूं, वो इसलिये तत्कालीन उपजे हालात व परिस्थितियों में मानव धर्म स्वमेव सर्वोपरी हो जाता है, किसी पीडित व दुखियारी की मदद के समय इंसान यह नही सोचता कि वह किस धर्म या संप्रदाय का है, यह ही मानव धर्म है।
मानव, मानव धर्म, मन ही मंदिर ... यहां मानव से तात्पर्य इंसान से, मानव धर्म से तात्पर्य इंसानियत से, मन ही मंदिर से तात्पर्य मानव के मन से है ... मानव का मन ही वह स्थल है जहां ईश्वर सकारात्मक सोच व ऊर्जा के रूप में वास करता है और मनुष्य को सतकर्म का मार्ग प्रशस्त करते हुये जीवन दर्शन कराता है ... मानवीय सोच, ऊर्जा व ईश्वर का वास मन रूपी मंदिर में होता है अर्थात मन ही मंदिर है !
जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)
यहां पर मैं उस ईश्वर की चर्चा करना चाहता हूं जो किसी धर्म विशेष का न होकर मानव जाति का है, मेरा सीधा-सीधा तात्पर्य मानव जाति अर्थात समाज से है, वो इसलिये जब मानव जन्म लेता है तब उसका कोई धर्म नही होता, वह जिस धर्म को मानने वाले परिवार में जन्म लेता है वह ही उसका धर्म हो जाता है, यह धर्म उसे विरासत में मिलता है।
यहां यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं सभी धर्म को समान रूप से मानता हूं व सम्मान देता हूं लेकिन मैं मानव धर्म को प्राथमिक तौर पर सर्वोपरी मानता हूं, वो इसलिये तत्कालीन उपजे हालात व परिस्थितियों में मानव धर्म स्वमेव सर्वोपरी हो जाता है, किसी पीडित व दुखियारी की मदद के समय इंसान यह नही सोचता कि वह किस धर्म या संप्रदाय का है, यह ही मानव धर्म है।
मानव, मानव धर्म, मन ही मंदिर ... यहां मानव से तात्पर्य इंसान से, मानव धर्म से तात्पर्य इंसानियत से, मन ही मंदिर से तात्पर्य मानव के मन से है ... मानव का मन ही वह स्थल है जहां ईश्वर सकारात्मक सोच व ऊर्जा के रूप में वास करता है और मनुष्य को सतकर्म का मार्ग प्रशस्त करते हुये जीवन दर्शन कराता है ... मानवीय सोच, ऊर्जा व ईश्वर का वास मन रूपी मंदिर में होता है अर्थात मन ही मंदिर है !
जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)
Sunday, June 27, 2010
सफ़लता का मूल मंत्र
आज मानव जीवन बेहद तेज गति से चलायमान है, प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ़ अपने आप में मशगूल है, उसके आस-पास क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, उचित या अनुचित, इसे जानने का उसके पास समय ही नहीं है, सच कहा जाये तो मनुष्य एक मशीन की भांति क्रियाशील हो गया है।
मनुष्य जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलु हैं, सफ़लता या असफ़लता, मनुष्य की भाग-दौड इन दो पहलुओं के इर्द-गिर्द ही चलायमान रहती है, सफ़लता पर खुशियां तथा असफ़लता पर खामोशी ..... ऎसा नहीं कि जिसके पास सब कुछ है वह असफ़ल नहीं हो सकता, और ऎसा भी नहीं है कि जिसके पास कुछ भी नहीं है वह सफ़ल नहीं हो सकता।
सफ़लता क्या है, सफ़लता से यहां मेरा तात्पर्य संतुष्टि से है, दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि संतुष्टि ही सफ़लता है, संतुष्टि कैसे मिल सकती है, कहां से मिल सकती है, क्या संतुष्टि अर्थात सफ़लता का कोई मंत्र है।
आज हम सफ़लता के मूल मंत्र पर प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं, सफ़लता का मंत्र है "शरण दे दो या शरण ले लो" ... यदि आप इतने सक्षम हैं कि किसी व्यक्ति विशेष को शरण दे सकते हैं तो उसे आंख मूंद कर शरण दे दीजिये, वह हर क्षण आपकी खुशियों व संतुष्टि के लिये एक पैर पर खडा रहेगा, आपकी खुशियों को देख देख कर खुश रहेगा, और हर पल आपको खुशियां देते रहेगा ... क्यों, क्योंकि आपकी खुशियों में ही उसकी खुशियां समाहित रहेंगी ... आप ने जो उसे शरण दी है।
... या फ़िर आंख मूंद कर किसी सक्षम व्यक्ति की शरण में चले जाओ, समर्पित कर दो स्वयं को किसी के लिये, जब आप खुद को समर्पित कर दोगे तो हर पल सामने वाली की खुशी व संतुष्टि के लिये प्रयासरत रहोगे, जैसे जैसे उसे संतुष्टि व खुशियां मिलते रहेंगी वैसे वैसे आप स्वयं भी खुश होते रहोगे ... उसकी संतुष्टि में ही आपको आत्म संतुष्टि प्राप्त होते रहेगी ... क्योंकि आप जो उसकी शरण में चले गये हो।
यह मंत्र आपको शासकीय, व्यवसायिक, सामाजिक व व्यवहारिक जीवन के हर क्षेत्र में सफ़लता प्रदाय करेगा। साहित्यिक, धार्मिक, व्यवहारिक शब्दों में कहा जाये तो सफ़लता का मूल मंत्र "गुरु-शिष्य" के भावार्थ में छिपा हुआ है, कहने का तात्पर्य यह है कि आप गुरु बन कर शरण दे दो या शिष्य बन कर किसी की शरण में चले जाओ ... सफ़लता अर्थात संतुष्टि निश्चिततौर पर आपके साथ रहेगी।
जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)
मनुष्य जीवन के दो महत्वपूर्ण पहलु हैं, सफ़लता या असफ़लता, मनुष्य की भाग-दौड इन दो पहलुओं के इर्द-गिर्द ही चलायमान रहती है, सफ़लता पर खुशियां तथा असफ़लता पर खामोशी ..... ऎसा नहीं कि जिसके पास सब कुछ है वह असफ़ल नहीं हो सकता, और ऎसा भी नहीं है कि जिसके पास कुछ भी नहीं है वह सफ़ल नहीं हो सकता।
सफ़लता क्या है, सफ़लता से यहां मेरा तात्पर्य संतुष्टि से है, दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि संतुष्टि ही सफ़लता है, संतुष्टि कैसे मिल सकती है, कहां से मिल सकती है, क्या संतुष्टि अर्थात सफ़लता का कोई मंत्र है।
आज हम सफ़लता के मूल मंत्र पर प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं, सफ़लता का मंत्र है "शरण दे दो या शरण ले लो" ... यदि आप इतने सक्षम हैं कि किसी व्यक्ति विशेष को शरण दे सकते हैं तो उसे आंख मूंद कर शरण दे दीजिये, वह हर क्षण आपकी खुशियों व संतुष्टि के लिये एक पैर पर खडा रहेगा, आपकी खुशियों को देख देख कर खुश रहेगा, और हर पल आपको खुशियां देते रहेगा ... क्यों, क्योंकि आपकी खुशियों में ही उसकी खुशियां समाहित रहेंगी ... आप ने जो उसे शरण दी है।
... या फ़िर आंख मूंद कर किसी सक्षम व्यक्ति की शरण में चले जाओ, समर्पित कर दो स्वयं को किसी के लिये, जब आप खुद को समर्पित कर दोगे तो हर पल सामने वाली की खुशी व संतुष्टि के लिये प्रयासरत रहोगे, जैसे जैसे उसे संतुष्टि व खुशियां मिलते रहेंगी वैसे वैसे आप स्वयं भी खुश होते रहोगे ... उसकी संतुष्टि में ही आपको आत्म संतुष्टि प्राप्त होते रहेगी ... क्योंकि आप जो उसकी शरण में चले गये हो।
यह मंत्र आपको शासकीय, व्यवसायिक, सामाजिक व व्यवहारिक जीवन के हर क्षेत्र में सफ़लता प्रदाय करेगा। साहित्यिक, धार्मिक, व्यवहारिक शब्दों में कहा जाये तो सफ़लता का मूल मंत्र "गुरु-शिष्य" के भावार्थ में छिपा हुआ है, कहने का तात्पर्य यह है कि आप गुरु बन कर शरण दे दो या शिष्य बन कर किसी की शरण में चले जाओ ... सफ़लता अर्थात संतुष्टि निश्चिततौर पर आपके साथ रहेगी।
जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)
Wednesday, June 16, 2010
मानव धर्म क्या है !
मानव धर्म क्या है, मानव धर्म की आवश्यकता क्यों है।
मनुष्य अर्थात मानव इस संसार का अदभुत प्राणी है जिसके इर्द-गिर्द ये दुनिया चलायमान है, ऎसा नहीं है कि सिर्फ़ मनुष्य के लिये ही यह संसार है लेकिन मनुष्य ही वह भौतिक केन्द्र है जो इस संसार का महत्वपूर्ण अंग है।
मानव आदिकाल से शनै-शनै अपनी बुद्धि व विवेक से निरंतर नये नये अविष्कार करते हुये वर्तमान में अनेक भौतिक सुख व सुविधाओं का आनंद प्राप्त कर रहा है, जिन अविष्कारों की कल्पना आज से सौ वर्ष पहले नही की गई थी आज उनका अविष्कार हो गया है, आज जिन अविष्कारों के संबंध में कल्पना नहीं की जा रही है संभवत: आने वाले समय में उन अविष्कारों का आनंद भी हम प्राप्त करेंगे।
इन तरह तरह के बदलाव के साथ साथ मनुष्य भी बदलता जा रहा है आज उसे अपने परिवार व समाज के संबंध में सोचने व समझने का समय ही नहीं है, संभव है आधुनिक अविष्कारों व सुख-सुविधाओं ने मनुष्य को जकड लिया है वह अपने नैसर्गिक धर्म अर्थात मानव धर्म को भूल रहा है, मानव धर्म से मेरा तात्पर्य मानवता से है मानवता जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के प्रति संवेदनशील रखती है।
आज मनुष्य क्यों जातिगत व धार्मिकता के बंधन में बंधकर मानवता से परे हो रहा है, आज सर्वाधिक आवश्यकता मानवता व मानवीय द्रष्ट्रिकोण की है, एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव, निस्वार्थ प्रेम व सहयोग की है, कोई अपना-पराया नहीं है, हम सब एक हैं, यह ही मानव धर्म है।मानव धर्म क्या है, मानव धर्म की आवश्यकता क्यों है।
मनुष्य अर्थात मानव इस संसार का अदभुत प्राणी है जिसके इर्द-गिर्द ये दुनिया चलायमान है, ऎसा नहीं है कि सिर्फ़ मनुष्य के लिये ही यह संसार है लेकिन मनुष्य ही वह भौतिक केन्द्र है जो इस संसार का महत्वपूर्ण अंग है।
मानव आदिकाल से शनै-शनै अपनी बुद्धि व विवेक से निरंतर नये नये अविष्कार करते हुये वर्तमान में अनेक भौतिक सुख व सुविधाओं का आनंद प्राप्त कर रहा है, जिन अविष्कारों की कल्पना आज से सौ वर्ष पहले नही की गई थी आज उनका अविष्कार हो गया है, आज जिन अविष्कारों के संबंध में कल्पना नहीं की जा रही है संभवत: आने वाले समय में उन अविष्कारों का आनंद भी हम प्राप्त करेंगे।
इन तरह तरह के बदलाव के साथ साथ मनुष्य भी बदलता जा रहा है आज उसे अपने परिवार व समाज के संबंध में सोचने व समझने का समय ही नहीं है, संभव है आधुनिक अविष्कारों व सुख-सुविधाओं ने मनुष्य को जकड लिया है वह अपने नैसर्गिक धर्म अर्थात मानव धर्म को भूल रहा है, मानव धर्म से मेरा तात्पर्य मानवता से है मानवता जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के प्रति संवेदनशील रखती है।
आज मनुष्य क्यों जातिगत व धार्मिकता के बंधन में बंधकर मानवता से परे हो रहा है, आज सर्वाधिक आवश्यकता मानवता व मानवीय द्रष्ट्रिकोण की है, एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव, निस्वार्थ प्रेम व सहयोग की है, कोई अपना-पराया नहीं है, हम सब एक हैं, यह ही मानव धर्म है।
जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)
मनुष्य अर्थात मानव इस संसार का अदभुत प्राणी है जिसके इर्द-गिर्द ये दुनिया चलायमान है, ऎसा नहीं है कि सिर्फ़ मनुष्य के लिये ही यह संसार है लेकिन मनुष्य ही वह भौतिक केन्द्र है जो इस संसार का महत्वपूर्ण अंग है।
मानव आदिकाल से शनै-शनै अपनी बुद्धि व विवेक से निरंतर नये नये अविष्कार करते हुये वर्तमान में अनेक भौतिक सुख व सुविधाओं का आनंद प्राप्त कर रहा है, जिन अविष्कारों की कल्पना आज से सौ वर्ष पहले नही की गई थी आज उनका अविष्कार हो गया है, आज जिन अविष्कारों के संबंध में कल्पना नहीं की जा रही है संभवत: आने वाले समय में उन अविष्कारों का आनंद भी हम प्राप्त करेंगे।
इन तरह तरह के बदलाव के साथ साथ मनुष्य भी बदलता जा रहा है आज उसे अपने परिवार व समाज के संबंध में सोचने व समझने का समय ही नहीं है, संभव है आधुनिक अविष्कारों व सुख-सुविधाओं ने मनुष्य को जकड लिया है वह अपने नैसर्गिक धर्म अर्थात मानव धर्म को भूल रहा है, मानव धर्म से मेरा तात्पर्य मानवता से है मानवता जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के प्रति संवेदनशील रखती है।
आज मनुष्य क्यों जातिगत व धार्मिकता के बंधन में बंधकर मानवता से परे हो रहा है, आज सर्वाधिक आवश्यकता मानवता व मानवीय द्रष्ट्रिकोण की है, एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव, निस्वार्थ प्रेम व सहयोग की है, कोई अपना-पराया नहीं है, हम सब एक हैं, यह ही मानव धर्म है।मानव धर्म क्या है, मानव धर्म की आवश्यकता क्यों है।
मनुष्य अर्थात मानव इस संसार का अदभुत प्राणी है जिसके इर्द-गिर्द ये दुनिया चलायमान है, ऎसा नहीं है कि सिर्फ़ मनुष्य के लिये ही यह संसार है लेकिन मनुष्य ही वह भौतिक केन्द्र है जो इस संसार का महत्वपूर्ण अंग है।
मानव आदिकाल से शनै-शनै अपनी बुद्धि व विवेक से निरंतर नये नये अविष्कार करते हुये वर्तमान में अनेक भौतिक सुख व सुविधाओं का आनंद प्राप्त कर रहा है, जिन अविष्कारों की कल्पना आज से सौ वर्ष पहले नही की गई थी आज उनका अविष्कार हो गया है, आज जिन अविष्कारों के संबंध में कल्पना नहीं की जा रही है संभवत: आने वाले समय में उन अविष्कारों का आनंद भी हम प्राप्त करेंगे।
इन तरह तरह के बदलाव के साथ साथ मनुष्य भी बदलता जा रहा है आज उसे अपने परिवार व समाज के संबंध में सोचने व समझने का समय ही नहीं है, संभव है आधुनिक अविष्कारों व सुख-सुविधाओं ने मनुष्य को जकड लिया है वह अपने नैसर्गिक धर्म अर्थात मानव धर्म को भूल रहा है, मानव धर्म से मेरा तात्पर्य मानवता से है मानवता जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य के प्रति संवेदनशील रखती है।
आज मनुष्य क्यों जातिगत व धार्मिकता के बंधन में बंधकर मानवता से परे हो रहा है, आज सर्वाधिक आवश्यकता मानवता व मानवीय द्रष्ट्रिकोण की है, एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव, निस्वार्थ प्रेम व सहयोग की है, कोई अपना-पराया नहीं है, हम सब एक हैं, यह ही मानव धर्म है।
जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)
Monday, June 7, 2010
कल क्या है !
कल क्या है, कल किसने देखा है, कल का कल देखेंगे, कल के सपने देखना बंद करो, कल के चक्कर में आज खराब मत करो ... ऎसे बहुत सारे प्रश्न हैं जिन पर समय-बे-समय चर्चा होते रहती है।
आज हम इन संपूर्ण सवालों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करते हैं, सर्वप्रथम कल, आज, और कल पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे ... कल अर्थात अतीत जो गुजर गया, भूतकाल ... आज अर्थात जो चल रहा है, वर्तमान ... कल अर्थात जो आने वाला है, भविष्य ... मनुष्य जीवन के ये तीन महत्वपूर्ण चक्र हैं भूत, वर्तमान, भविष्य।
भूत अर्थात गुजरा हुआ कल जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता ... गुजरी हुई होनी-अनहोनी, लाभ-हानि, सुख-दुख, उतार-चढाव ये सब हमें अतीत की याद दिलाते हैं जो साक्षात मनुष्य जीवन के गुजरे हुए पल हैं ... इन से कोई इंकार नहीं कर सकता।
आज अर्थात वर्तमान, जो हो रहा है, जिसे हम जी रहे हैं, जो महसूस कर रहे हैं, अच्छा-बुरा, इधर-उधर, भागम-भाग, लेना-देना, रोना-गाना, जीना-मरना ... ये वर्तमान है जिसे हम अपनी आंखों के सामने देख रहे व महसूस कर रहे हैं।
अब हम आने वाले कल अर्थात भविष्य पर प्रकाश डालते हैं, ... कल क्या है, जो अगले क्षण होने वाला है वही कल है ... कल किसने देखा है, हम ने देखा है - हम देखेंगे, क्या हम इंकार कर सकते हैं कि हम बचपन से ही आने वाले कल को देखते हुये नहीं आ रहे हैं।
कल का कल देखेंगे, उचित है यह कहना, पर कितना, ऎसे कितने मुर्ख या बुद्धिमान हैं जो कल की रणनीति आज बना कर नहीं चलते, शायद बहुत कम लोग हों, लगभग प्रत्येक समझदार आने वाले कल की योजनाएं बना कर चलता है, आज की मजबूत बुनियाद पर ही कल मजबूत इमारत खडी हो सकती है।
कल के सपने देखना बंद करो, कल के चक्कर में आज खराब मत करो, क्यों - किसलिये ... आने वाले कल की योजनाएं व सपने जितने सुनहरे होंगे संभवत: आने वाला कल भी उतना ही सुनहरा होगा ... इसलिये यह आवश्यक है कि हम कल की ओर सदैव सचेत व सकारात्मक रहें।
जिस प्रकार हम अतीत व वर्तमान से इंकार नहीं कर सकते ठीक उसी प्रकार आने वाले कल से भी इंकार नहीं किया जा सकता ... आने वाले कल को सपने की तरह अपनी अपनी आंखों में संजोकर रखना मनुष्य जीवन का महत्वपूर्ण पहलु है।
जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है )
आज हम इन संपूर्ण सवालों पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करते हैं, सर्वप्रथम कल, आज, और कल पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे ... कल अर्थात अतीत जो गुजर गया, भूतकाल ... आज अर्थात जो चल रहा है, वर्तमान ... कल अर्थात जो आने वाला है, भविष्य ... मनुष्य जीवन के ये तीन महत्वपूर्ण चक्र हैं भूत, वर्तमान, भविष्य।
भूत अर्थात गुजरा हुआ कल जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता ... गुजरी हुई होनी-अनहोनी, लाभ-हानि, सुख-दुख, उतार-चढाव ये सब हमें अतीत की याद दिलाते हैं जो साक्षात मनुष्य जीवन के गुजरे हुए पल हैं ... इन से कोई इंकार नहीं कर सकता।
आज अर्थात वर्तमान, जो हो रहा है, जिसे हम जी रहे हैं, जो महसूस कर रहे हैं, अच्छा-बुरा, इधर-उधर, भागम-भाग, लेना-देना, रोना-गाना, जीना-मरना ... ये वर्तमान है जिसे हम अपनी आंखों के सामने देख रहे व महसूस कर रहे हैं।
अब हम आने वाले कल अर्थात भविष्य पर प्रकाश डालते हैं, ... कल क्या है, जो अगले क्षण होने वाला है वही कल है ... कल किसने देखा है, हम ने देखा है - हम देखेंगे, क्या हम इंकार कर सकते हैं कि हम बचपन से ही आने वाले कल को देखते हुये नहीं आ रहे हैं।
कल का कल देखेंगे, उचित है यह कहना, पर कितना, ऎसे कितने मुर्ख या बुद्धिमान हैं जो कल की रणनीति आज बना कर नहीं चलते, शायद बहुत कम लोग हों, लगभग प्रत्येक समझदार आने वाले कल की योजनाएं बना कर चलता है, आज की मजबूत बुनियाद पर ही कल मजबूत इमारत खडी हो सकती है।
कल के सपने देखना बंद करो, कल के चक्कर में आज खराब मत करो, क्यों - किसलिये ... आने वाले कल की योजनाएं व सपने जितने सुनहरे होंगे संभवत: आने वाला कल भी उतना ही सुनहरा होगा ... इसलिये यह आवश्यक है कि हम कल की ओर सदैव सचेत व सकारात्मक रहें।
जिस प्रकार हम अतीत व वर्तमान से इंकार नहीं कर सकते ठीक उसी प्रकार आने वाले कल से भी इंकार नहीं किया जा सकता ... आने वाले कल को सपने की तरह अपनी अपनी आंखों में संजोकर रखना मनुष्य जीवन का महत्वपूर्ण पहलु है।
जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है )
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