"बंधुवा मजदूर" समाज में व्याप्त एक समस्या है, समस्या इसलिये कि मजदूर अपनी मर्जी का मालिक नहीं रहता वह हालात व परिस्थितियों के भंवर जाल में फ़ंस कर "बंधुवा मजदूर" बन जाता है, होता ये है कि अक्सर गरीब इंसान खेती-किसानी के मौसम के बाद बेरोजगार हो जाता है तब उसके पास खाने-कमाने का कोई जरिया नजर नही आता तो वह कुछ "लेबर सरदारों" के चंगुल में फ़ंस कर मजदूरी करने के लिये प्रदेश से बाहर चला जाता है और वहां उसकी स्थिति "बंधुवा मजदूर" की हो जाती है ।
प्रदेश से बाहर कमाने-खाने जाने वाला मजदूर बंधुवा अर्थात बंधक मजदूर कैसे बन जाता है, होता ये है कि वह जिस "लेबर सरदार" की बातों में आकर बाहर कमाने-खाने जाता है वह "सरदार" उस मजदूर की मजदूरी के बदले में मालिक से छ: माह अथवा साल भर की मजदूरी रकम एडवांस में ले लेता है जिसका कुछ अंश वह मजदूर को दे देता है तथा शेष रकम को वह अपने पास रख लेता है, मजदूर वहां काम करने लगता है और "सरदार" वापस चला जाता है।
होता दर-असल ये है कि "मालिक और लेबर सरदार" के बीच क्या बात हुई तथा क्या लेन-देन हुआ इससे वह मजदूर अंजान रहता है तथा काम करते रहता है, जब वह तीन-चार माह काम करने के पश्चात घर-गांव वापस जाने को कहता है तो मालिक उसे जाने से मना कर देता है और कहता है "... तेरा छ: माह का मजदूरी दे चुका हूं तुझे छ: माह काम करना ही पडेगा ..." ... चूंकि मजदूर के पास वापस जाने के लिये रुपये नहीं होते हैं और उसे उसके तीन-चार माह के काम का मेहनताना नहीं मिला होता है तो वह मजबूर होकर काम जारी रखता है जब तक "लेबर सरदार" नहीं आ जाये तब तक वह "बंधुवा मजदूर" बनकर काम करते रहता है।
2 comments:
sahee likhaa hai !
Dukhad!
Agar apni mitti par hee rozgaar mile to pardes (doosre pradesh) kyun jana pade?
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