Thursday, May 13, 2010

दो मित्र

दो मित्र सत्यानंद और धनीराम एक साथ पढते-पढते, खेलते-कूदते, मौज-मस्ती करते हुये बचपने से जवानी की दहलीज पार करते हुये जीवन के रंगमंच पर प्रवेश किये ..... दोनों के स्वभाव में तनिक ही अंतर था सत्यानंद होशियार बुद्धिमान था और धनीराम चालाक बुद्धिमान .... दोनों ही जीवन यापन के लिये कामधंधे में लग गये .... होशियार का मकसद "नाम प्रसिद्धि" कमाना था और चालाक का मकसद "धन-दौलत" कमाना था इसलिये वे दोनों अलग अलग राह पर निकल गये .....

..... चलते चलते समय करवट लेते रहा चार-पांच साल का वक्त गुजर गया, बदलाव के साथ ही दोनों की उपलब्धियां नजर आने लगीं चालाक मित्र "कार मोबाईल" के मजे ले रहा था और होशियार मित्र छोटे-मोटे समारोहों में "मान-सम्मान" से ही संतुष्ट था ..... हुआ ये था कि चालाक मित्र अपनी चालाकी से एक-दूसरे को "टोपीबाजी" करते हुये "कमीशन ऎजेंट" का काम कर रहा था और दूसरा बच्चों को टयूशन पढाते हुये "लेखन कार्य" में तल्लीन था ...

.... समय करवट बदलते रहा, पांच-सात साल का वक्त और गुजर गया ... गुजरते वक्त ने इस बार दोनों मित्रों को गांव से अलग कर दिया, हुआ ये कि धनीराम गांव छोडकर देश की राजधानी मे बस गया और सत्यानंद वहीं गांव मे रहते हुये बच्चों को पढाते पढाते दो-चार बार राजधानी जरूर घूम आया .... समय करवट बदलते रहा, और पंद्रह-सत्रह साल का वक्त गुजर गया ....

.... इस बार के बदलाव ऎसे थे कि दोनों मित्र आपस में एक बार भी नहीं मिल सके थे दोनों अपने-आप में ही मशगूल रहे, पर इस बदलाव में कुछ बदला था तो "वक्त ने करवट" ली थी हुआ ये था कि चालाक मित्र "करोडपति व्यापारी" बन गया था और होशियार मित्र "लेखक" बन गया था, व्यापारी "हवाईजहाज" से विदेश घूम रहा था और लेखक राष्ट्रपति से लेखन उपलब्धियों पर "पुरुस्कार" ले रहा था ....

.... वक्त गुजरता रहा, जीवन के अंतिम पडाव का दौर चल पडा था दोनों ही मित्रों ने अपना अपना मकसद पा लिया था लेकिन बरसों से दोनो एक-दूसरे से दूर अंजान थे ..... एक दिन चालाक मित्र अपने कारोबार के सिलसिले में अंग्रेजों के देश गया वहां साल के सबसे बडे जलसे की तैयारी चल रही थी उत्सुकतावश उसने जानना चाहा तो पता चला कि इस "जलसे" मे दुनिया की जानी-मानी हस्तियों को सम्मानित किया जाता है .... बताने बाले ने कहा कि इस बार तुम्हारे देश के "लेखक - सत्यानंद" को सर्वश्रेष्ठ सम्मान से सम्मानित किया जा रहा है यह तुम्हारे लिये गर्व की बात होनी चाहिये ....

.... उसकी बातें सुनते सुनते "सेठ - धनीराम" की आंखें स्वमेव फ़ट पडीं ... वह भौंचक रह गया .... मन में सोचने लगा ये कौन सत्यानंद है जिसे सम्मान मिल .... समारोह में अपने बचपन के मित्र सत्यानंद को "सर्वश्रेष्ठ सम्मान" से सम्मानित होते उसने अपनी आंखों से देखा और खुशी से उसकी आंखें अपने आप छलक पडीं .... वहां तो धनीराम को अपने मित्र सत्यानंद से मिलने का "मौका" नहीं मिल पाया ..... दो-चार दिन में व्यवसायिक काम निपटा कर अपने देश वापस आते ही धनीराम सीधा अपने गांव पहुंचा ....

....... बचपन के मित्र सत्यानंद से मिलने की खुशी ..... सत्यानंद ने धनीराम को देखते ही उठकर गले से लगा लिया .... दोनों की "खुशी" का ठिकाना रहा ..... धनीराम बोल पडा - मैने इतनी "धन-दौलत" कमाई जिसकी कल्पना नहीं की थी पर तेरी "प्रसिद्धि" के सामने सब "फ़ीकी" पड गई ..... आज सचमुच मुझे यह कहने में "गर्व" हो रहा है कि मैं "सत्यानंद" का मित्र हूं

8 comments:

Anonymous said...

उदय JI KAHANI ACHHI LAGI . उदय JI BLOG SE WORD VERIFICATION HATA LE .

Asha Joglekar said...

विद्वान सर्वत्र पूज्यते ।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

आपका कहानी में त ओ. हेनरी का झलक नजर आ गया.. बहुत बढिया.. बच्चा लोग को प्रेरना का कथा सुनाने जोग्य कहानी है.. धन्यवाद!!

Apanatva said...

kahanee acchee lagee .

Anonymous said...

"धनीराम बोल पडा - मैने इतनी "धन-दौलत" कमाई जिसकी कल्पना नहीं की थी पर तेरी "प्रसिद्धि" के सामने सब "फ़ीकी" पड गई ..... आज सचमुच मुझे यह कहने में "गर्व" हो रहा है कि मैं "सत्यानंद" का मित्र हूं।"
दिल के तारों को झकझोरने वाली सच्ची रचना - आभार

माधव( Madhav) said...

nice story, intrsting, welcome to Hindi Blog World. i expect regular writing from ur side

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संजय भास्‍कर said...

बहुत बढिया..

रतन चंद 'रत्नेश' said...

Achhi lagi.