Wednesday, August 18, 2010

धर्म - अधर्म क्या है !

धर्म - अधर्म क्या है ! मानव धर्म व मानवीय द्रष्ट्रिकोण से देखें तो धर्म व अधर्म की बेहद संक्षिप्त परिभाषा है किन्तु परिणाम बेहद विस्तृत हैं, सदभावना पूर्ण ढंग से किये गये कार्य धर्म हैं तथा दुर्भावना पूर्ण ढंग से किये गये कार्य अधर्म हैं।

सदभावना पूर्ण ढंग से किये गये कार्य सदैव ही मन को शांति प्रदान करते हैं, परिणाम सकारात्मक या नकारात्मक अथवा सामान्य प्राप्त हो सकते हैं किन्तु कार्य संपादन के दौरान चारों ओर शांति व सौहार्द्र का वातावरण बना रहता है।

दुर्भावना पूर्ण ढंग से किये गये कार्य सदैव ही मन को विचलित रखते हैं, कार्य आरंभ से लेकर समापन तक मन में व्याकुलता व अनिश्चितता बनी रहती है परिणाम सकारात्मक होने के पश्चात भी मन में संतुष्टि का अभाव रहता है।

जय गुरुदेव
( विशेष टीप :- यह लेख आचार्य जी ब्लाग पर प्रकाशित है।)

6 comments:

DR. ANWER JAMAL said...

सब आदमी एक आदम की औलाद हैं और एक पालनहार के बंदे हैं । उसने हर ज़माने में अपने दूतों के ज़रिये इनसान को यही शिक्षा दी है कि केवल मेरी उपासना करो और मेरे आदेश का पालन करो। खुद को पूरी तरह मेरे प्रति समर्पित कर दो। उसने अपने दूतों के अन्तःकरण पर अपनी वाणी का अवतरण किया। उसने हरेक तरह की जुल्म-ज़्यादती को हराम क़रार दिया और हरेक भलाई को लाज़िम ठहराया। उन सच्चे दूतों के बाद लोगों ने वाणी को छिपा दिया और अपनी कविता और अपने दर्शन को ही जनता में प्रचारित कर दिया। इससे लोगों के विश्वास और रीतियां अलग-अलग हो गईं। लोग मूर्तिपूजा और आडम्बर को धर्म समझने लगे। हर जगह यही हुआ, इसी वजह से आपको हिन्दू और मुसलमान अलग-अलग नज़र आ रहे हैं।
मुसलमानों की मिसाल से आप अच्छी तरह समझ सकते हैं। इसलाम में क़ब्र पक्की बनाना, उस पर चादरें चढ़ाना, रौशनी करना, म्यूज़िक बजाना, औरतों-मर्दों का मिलकर वहां क़व्वाली गाना और सुनना, मज़ार वाले से दुआ मांगना सब हराम है, यह तो है पवित्र कुरआन का हुक्म लेकिन आप ये सब होता हुआ देख ही रहे हैं। बहुत सी जगहों पर ये चीज़ें इसलाम धर्म का अंग समझी जाने लगी हैं। मालिक का हुक्म कुछ है और बंदों का अमल उसके सरासर खि़लाफ़। करोड़ों रूपये की आमदनी क़ब्रों के मुजाविरों को हो रही है। क्या ये अपनी आमदनी का दरवाज़ा खुद ही बंद कर देंगे ?
हिन्दुओं में भी ऐसे ही विकार जड़ पकड़ गये हैं। उनके धर्मग्रंथ भी मूर्तिपूजा और आडम्बर से रोकते हैं लेकिन लोग उनकी मानते कब हैं और जिनके पौ-बारह हो रहे हैं वे भला क्यों रोकेंगे ?
ईश्वर एक है, शाश्वत है और उसका धर्म सनातन है यानि सदा से है। सारी मानव जाति का कल्याण एक परमेश्वर के नाम पर एक होने में ही है। हरेक झगड़े का अंत इसी से होगा, इसी लिये मैं दोनों को एक मानता हूं और जिसे शक हो वह कुरआन शरीफ़ की सूर ए शूरा की 13 वीं आयत पढ़ लें।
http://vedquran.blogspot.com/2010/08/prophet-muhammed-saw.html

Anonymous said...

सुन्दर पोस्ट, छत्तीसगढ मीडिया क्लब में आपका स्वागत है.

रंजना said...

एकदम सटीक और सही विवेचना है...

दिगम्बर नासवा said...

सही लिखा है .... सद्विचार से ही कर्म करना चाहिए ....

Shriram Narasimhan said...

समझदारी ही सुख

समझदारी से ही कल्याण होगा | समझदारी से ही सुखी समृद्ध होते हैं | समझदारी में वर्तमान में व्यवस्था के रूप में जीते हैं | तभी सह-अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं | सुख के चार चरण है, समाधान, समृद्दि, अभय, सह-अस्तित्व | यानि हर मानव में समाधान, परिवार में समृद्धि, समाज में अभय और अस्तित्व में सह-अस्तित्व | यह चारों चीजें आती है तो हम सुखी हो जाते हैं | जब तक यह चारों चीजें नहीं आती हैं तब तक हम प्रयत्न करते रहते है | यह सदा-सदा से हो ही रहा है | इस प्रयत्न के क्रम में ही हम तमाम जप-तप, पूजा-पाठ, योग-यज्ञ कर डाले है | बहुत सारी चीजें, धन-संपदा भी इकट्टा किये है, किन्तु इससे सब लोग तो सुखी नहीं हुए | एक ही परिवार के सभी लोग सुखी नहीं हो पाते है | ऐसा ही समाज में देखने में आता है | सभी के सुखी होने के लिए सभी का समझदार होना आवश्यक है | ऐसा होता नहीं कि एक व्यक्ति ज्ञानी हो जाये और सब को तार दे | हर व्यक्ति को सुखी होना है तो समझदार होना ही होगा | अवसर यह है कि समझदारी सभी को पहुंचाया जा सकता है | समझदारी के लिए पहला चरण है अस्तित्व को समझना | अस्तित्व चार अवस्था में है | पहला पदार्थावस्था, जिसमें मिटटी, पाषाण, मणि, धातु आदि है | यह सब अपने आचरण में प्रमाणित है ही | दूसरी प्राणावस्था, जिसमे सभी वनस्पतियां, औषधियां है | यह सब भी अपने आचरणों में स्वयं प्रमाणित है | तीसरी जीवावस्था, जिसमें मनुष्य को छोडकर सभी जीव-पक्षी आते हैं | यह सभी अपने त्व सहित व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित है ही | चौथी ज्ञानावस्था है, जिसमें केवल मनुष्य है, जिसको व्यवस्था में होने में अभी प्रतीक्षा है | अब सोचिये सबसे विकसित अवस्था सबसे पीछे है | क्या मतलब है इसका? ऐसा जीने-रहने पर दुःख नहीं होगा तो क्या होगा?

इसीलिए बात की जा रही है समझदारी कि | तभी व्यवस्था में जिया जा सकता है और तभी सुखी रहा जा सकता है | हमारा चरित्र भी विकसित चेतना के रूप में होने कि आवश्यकता है | आचरण के रूप में हर वस्तु अपनी व्यवस्था को प्रमाणित करतें हैं | मानव भी अपने आचरण में व्यवस्था को प्रमाणित करेगा | इसकी संभावना भी है, प्रयास भी है | इसी के बाद मानव का सुखपूर्वक व्यवस्था में जीना और उसकी परंपरा बनना निश्चित होगा |

- ए. नागराज

02 मार्च २०१२


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Shriram Narasimhan said...

जीवन विद्या


मानव मूल्य जब हम चरितार्थ करना शुरू करते है, तभी हम सही करने में समर्थ, पारंगत होते हैं | तब तक किसी न किसी उन्माद में जकडे ही रहते है और हमको सही करने का कोई रास्ता मिलता नहीं | इसे ही नासमझी और भटकना कहा है | यही समस्या और दुःख के रूप में दिखाई देता है | कोई दुखी होना नहीं चाहता इसलिए छटपटाता है | समझदार होने के लिए जीवन तथा अस्तित्व को समझना ही विकल्प है | इसके बिना समझदारी होती नहीं | यही जीवन विद्या है | विद्या के दो भाग है ज्ञान और दर्शन | इन दोनों का धारक वाहक जीवन ही है | जीवन ज्ञान का मतलब जीवन में, जीवन से, जीवन को समझने कि प्रक्रिया से है | जीवन ही जब अस्तित्व को समझता है तब इस प्रक्रिया को अस्तित्व दर्शन कहा | सभी जीवन समान है और सारे मनुष्यों में जीवन एक समान है | जीवन में, जीवन को समझने कि विधि में, प्रमाणित करने की विधि में, अस्तित्व को समझने की विधि में, सह अस्तित्व को प्रमाणित करने की विधि में यह आया कि सभी जीवन समान है |

समझने कि व्यवस्था शरीर में हाथ-पैर, कान, नाक, चक्षु, मेधस, ह्रदय कही भी नहीं है | अभी तक यह भी बड़ी झंझट रही है कि समझनेवाला मस्तिष्क ही होता है, कई लोग इस पर बहस भी करते देखे जाते हैं पर जरा से गहराई से देखने पर ही पता चल जाता है कि यह व्यवस्था जीवन में ही है | जीवन ही जीवन को और अस्तित्व को समझने वाली वास्तु है और दूसरा कोई समझता नहीं | इस प्रकार से निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य समझदारी व्यक्त करने के लिए, समझदारी प्रमाणित करने के लिए, शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में होना जरूरी है | यह केवल शरीर या केवल जीवन रहने पर नहीं होगा | प्रमाणित करने का केंद्र बिंदु हुआ व्यवस्था में जीना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना | यही समझदारी कि सार्थकता है | हम सब व्यवस्था में जीना ही चाहते है, यह प्रक्रिया जीवन सहज ही है, यह कोई लादने वाली चीज नहीं है | अस्तित्व को समझने के क्रम में अस्तित्व स्वयं सह अस्तित्व है क्योंकि सत्ता यानि व्यापक में डूबी, भीगी, घिरी प्रकृति ही सम्पूर्ण अस्तित्व है |

ए. नागराज


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